Who was Karna and Arjuna really?
दोस्तों, क्या आप जानते हैं? वास्तव में अर्जुन कौन था? वास्तव में कर्ण कौन था? कथाओ के अनुसार कृष्णा और अर्जुन नर और नारायण के अवतार थे।
परमेश्वर सदाशिव के तीन मुख्य रूप में से प्रथम भगवान श्री विष्णु के 24 अवतार हैं।
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भगवानविष्णु के 24 अवतार इस प्रकार हैं .1.आदि परषु, 2.चार सनतकुमार, 3.वराह, 4.नारद, 5.नर और नारायण, 6.कपिल, 7दत्तात्रेय, 8.याज्ञ, 9.ऋषभ, 10.पृथु, 11.मतस्य, 12.कच्छप, 13.धनवंतरी, 14.मोहिनी, 15.नृसिंह, 16.हयग्रीव, 17.वामन, 18.परशुराम, 19.व्यास, 20.राम, 21.बलराम, 22.कृष्ण, 23.बुद्ध और 24.कल्कि
नर नारायण ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म और उनकी पुत्री मूर्ति के पुत्रो के रूप में अवतरित हुए थे .नर नारायण के कारण ही संसार में सुख एवं शांति का विस्तरण हुआ हैं।
जिस स्थल पर नर नारायण ने तपस्या की थी वहा पर आज बद्रिकाश्रम हैं। जो बद्रीनाथ में स्थित हैं वहा पर नर नारायण नाम के दो पर्वत भी हैं लोंगो के अनुसार वो पर्वत रूप में आज भी तपस्या कर रहे हैं। . कुछ दुरी पर ही केदारनाथ का मंदिर हैं जिसकी स्थापना नर नारायण ने स्वयं की थी।
नर नारायण और कर्ण अर्जुन से सबंधित कथा इस प्रकार हैं।
दम्बोद्भव नामक एक राक्षस था। उसने 1000 वर्षो तक अपने आराध्य सूर्यदेव की आराधना की।उसकी कठोर तपस्या से भगवान सूर्य प्रकट हुए और दम्बोद्भव को वरदान मांगने को कहा। दंबोधव ने सूर्य देव से अमरत्व का वरदान देने की प्रार्थना की परंतु सूर्य देव ने कहा : " वत्स, अमरत्व का वरदान देना मेरे वश में नहीं हैं अतः कोई और वरदान मांगो"
इस पर दम्बोद्भव ने सूर्य देव से कहा " हे सूर्यदेव ! मैंने आपकी सहत्र वर्षो तक तपस्या की हैं तो आप कृपया मुझे सहत्र कवच की सुरक्षा प्रदान करे और उस कवच को केवल वही तोड़ पाए जिसने सहस्त्र वर्षो तक तपस्या की हो और जो भी व्यक्ति इस कवच को तोड़े उस व्यक्ति की उसी क्षण मृत्यु हो जाये। "
सूर्यदेव को ज्ञात था की दम्बोद्भव इस वरदान का दुरूपयोग अवश्य करेगा परंतु सूर्यदेव तपस्या का फल देने को विवश थे इसीलिए सूर्यदेव ने दम्बोद्भव को यह वरदान दे दिया। वरदान मिलते ही दम्बोद्भव आतंक मचाने लगा।
दम्बोद्भव के आतंक से परेशान होकर ब्रह्मा के मानस पुत्र धर्म की पत्नी मूर्ति ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। देवी मूर्ति की प्रार्थना पर भगवान विष्णु में उनके गर्भ से नर नारायण के रूप में जन्म लिया जो दो शरीर और एक आत्मा थे।
समय के साथ दोनों भाई बड़े हुए। जब दोनों भाइयो को दम्बोद्भव के बारे में ज्ञात हुआ तो दोनों भाइयो ने दम्बोद्भव का वध करने का निश्चय किया।
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एकबार दम्बोद्भव नर नारायण के राज्य में आया तब अपनी तरफ एक तेजस्वी मनुष्य को आते देख भयभीत हो गया। बाद में उस तेजस्वी युवक के दम्बोद्भव से कहा में नर हूँ और में तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ।
दम्बोद्भव तेजस्वी युवक के इस बात से आश्चर्यचकित हुआ उसने युवक से कहा . " क्या तुम्हे ज्ञात हैं की में कौन हूँ? मैं सूर्यदेव के सहत्र दिव्य कवच से सुरक्षित हूँ और मेरा कवच केवल वही तोड़ सकता हैं जिसने सहत्र वर्षो तक तपस्या की हो।और यदि तुमने कवच को भेद भी दिया तो तुम्हरी भी मृत्यु हो जाएगी। "
दम्बोद्भव की यह बात सुनकर नर बोले : " इसकी चिंता तुम मत करो। मैं और मेरा भाई दो शरीर और एक आत्मा हैं। मेरा भाई नारायण मेरे बदले तपस्या कर रहा हैं और में यहाँ तुमसे युद्ध करने आया हूँ। फिर नर और दम्बोद्भव के बीच में युद्ध प्रारंभ हुआ।
दम्बोद्भव यह देखकर आश्चर्यचकित हुआ की नारायण के तप से नर की शक्ति बढ़ती जा रही थी। सहस्त्र वर्षो का समय समाप्त होते ही नर ने दम्बोद्भव का एक कवच भेद दिया .परंतु सूर्यदेव के वरदान के अनुसार कवच को भेदते ही नर की मृत्यु हो गई।
अगले ही क्षण दम्बोद्भव हूबहू नर की तरह दिखने वाले एक और तेजस्वी युवक को आते देख आश्चर्य में पड गया दंबोधव सोच में पड गया की मैंने अभी इसका वध किया हैं तो फिर से जीवित कैसे हो गया ?
बाद में दम्बोद्भव युवक को नर के शव के निकट जाते देख समाज गया की वो युवक नर का भाई नारायण हैं।
यह देख दम्बोद्भव हसने लगा और नारायण के सामने नर की मृत्यु पर मज़ाक करने लगा। यह देखकर नारायण मुस्कुरए और नर के कान में कोई मंत्र पढ़ा।
नारायण के मंत्र पढ़ते ही नर पुनर्जीवित हो उठे और उसके बाद नर तप करने चले गए और नारायण दम्बोद्भव से युद्ध करने लगे। इसी क्रमानुसार नर और नारायण ने मिलकर दम्बोद्भव के 999 कवच भेद दिए।
अंतिम कवच जब शेष था तब दम्बोद्भव सूर्यदेव की शरण में चला गया। नर और नारायण भी उसका पीछा करते हुए सूर्यलोक पहुंचे। अपने शरण में आये अपने भक्त दम्बोद्भव को सुर्यदेव ने अपने तेज का एक अंश बनाकर स्वयं में समा लिया।
यह देख नारायण ने सूर्यदेव को शाप दिया की " हे सूर्यदेव ! आप इस राक्षस की रक्षा कर इसे अपने कर्मफल से बचा रहे हैं अतः आप भी इसके भागीदार होंगे और द्धापरयुग में आपको भी इसका फल भोगना होगा।
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इसीलिए महाभारत में सूर्यपुत्र कर्ण एक ओर सूर्य के सामान तेजस्वी था। तो दूसरी ओर उसने द्रौपदी का अपमान और दुर्योधन के अधर्म का साथ देने जैसे अपकर्म किए।
क्योकि कर्ण के शरीर में भी नर नारायण की तरह दम्बोद्भव की आत्मा और सुर्यदेव का अंश था। और नर और नारायण इस बार कृष्णा और अर्जुन के रूप में थे. ।
इसी कारण से इद्रदेव ने कर्ण के उसका कवच और कुण्डल मांग लिए थे। क्यूंकि अगर इंद्रदेव ऐसा ना करते तो दंबोधव को मिले वरदान के कारण जैसे ही अर्जुन कर्ण के कवच को भेदते उसी क्षण अर्जुन की मृत्यु हो जाती।
अतः कवच न होने कारण ही अर्जुन के लिए कर्ण का वध संभव हो पाया।
हम आशा करते हैं की आपको यह लेख पसंद आया होगा .
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